हवा की सरसराहट को मैंने बहोत ग़ौर से महसूस किया

.ख़ामोश जगह जहां कुछ नहीं बस नींद ही नींद होती है.पर यहां पत्तों के बीच से बहती हवा माहौल में ‘अजब’ हलचल मचा रही थी.लग रहा था मानों कोई इन शाखाओं के बीच छुपा-छुपाई का खेल खेल रहा हो,अपनी दुनिया में एकदम अलग.ना किसी के आने की ख़बर ना किसी के जाने का एहसास.बाहर तमाम शोर है लेकिन इस ‘दुनिया’ की शर्त ही ‘ख़ामोशी’ है. हमारे लिए ये सब एक वीराना, सन्नाटा हो सकता है, लेकिन यहां ‘कुछ’ शेष नहीं रह जाता है.अचानक सफेद चादर में ढांप कर किसी को ‘बाइज़्ज़त’ भीतर लाया जाता है.वो एकदम ख़ाली हाथ थे.सीधे हाथ-पैर, मुंह पर सफेद पट्टी भी बंधी थी. एक चारपाई, चार कांधें, कुछ सिसकते चेहरे इस ‘ख़ामोश’ दुनिया में किसी का बसेरा बनाने पहुंचे थे.ये सफेद चादर ‘कफन’ था, बाहर चाहे राजा हों पर जो ‘साहब’ कंधों के सहारे थे, उसे लोग ‘मय्यत’ बुला रहे थे. ‘उन्हें’ अब रिहाइश दी जा रही थी.दो ग़ज़ ज़मीन के नीचे.क़रीब छः फ़ीट लंबी, मुश्किल से दो-ढाई फ़ीट गहरी और इंसानी जिस्म जितनी चौड़ी.ये ‘उनका’ आख़िरी पड़ाव था.यहां सारी कामयाबी ख़त्म हो गई. ख़ुबसूरती मिट्टी में दफन हो रही थी.ज़िक्र उनका ऊंचा था पर दफन ज़मीन में भी नीचे होना था.ये कैसा रुतबा है, कैसी दौलत है, कैसी ख़ुबसूरती है जो ‘यहां’ पहुंचने से नहीं रोक पाइ. कुछ और वक़्त बीता तो मिट्टी के ‘ढेर’ के नीचे चले गए.अब किस हाल में हैं, किसी को नहीं मालूम, लेकिन ये ही सच है…

हुए नामवर बे-निशां कैसे-कैसे
ज़मीं खा गई आसमां कैसे-कैसे

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