आजादी के बाद का बिहार- 1972 में लौटा एक पार्टी के CM का दौर, एक छात्र आंदोलन ने रखी कांग्रेस के पतन की नींव,आइये जानते हैं…
ब्यूरो रिपोर्ट
बिहार। बिहार में 1971 के बाद कैसे फिर से एक पार्टी के मुख्यमंत्री का दौर लौता। इस बदलाव के बावजूद आखिर क्यों राज्य में आठ साल के अंदर पांच मुख्यमंत्री बदल गए। कांग्रेस में फूट का राज्य की सियासत में क्या असर रहा। कैसे बिहार से इसी दौर में शुरू हुई जयप्रकाश नारायण की क्रांति ने पहले कांग्रेस को उखाड़ फेंका और फिर जेपी के नेतृत्व में बना जनता दल खुद ही बिखर गया? आइये जानते हैं… बिहार में विधानसभा चुनावों और सरकार के बनने-गिरने की कहानी आजादी के बाद से ही काफी दिलचस्प रही है। पहले राज्य में 15 साल तक श्रीकृष्ण सिन्हा के नेतृत्व में कांग्रेस का एकछत्र राज, फिर पार्टी में ही एक के बाद एक मुख्यमंत्रियों का बदलाव। 1967 के बाद से अलग-अलग राजनीतिक दलों के मुख्यमंत्रियों का शासन और इसके बाद कांग्रेस में ही दो धड़ों के बनने से बिहार में सियासी उथल-पुथल। अब बारी है बिहार की इससे आगे की राजनीति कहानी। कैसे राज्य में 1971 के बाद फिर से एक पार्टी के मुख्यमंत्री का दौर लौटा? इस बदलाव के बावजूद आखिर क्यों राज्य में आठ साल के अंदर पांच मुख्यमंत्री बदल गए? कांग्रेस में फूट का राज्य की सियासत में क्या असर रहा? कैसे बिहार से इसी दौर में शुरू हुई जयप्रकाश नारायण की क्रांति ने पहले कांग्रेस को उखाड़ फेंका और फिर जेपी के नेतृत्व में बना जनता दल खुद ही बिखर गया? आइये जानते हैं.. 1972: लोकसभा से लेकर विधानसभा तक बदली सत्ता की बयार दिसंबर 1971 में भोला पासवान शास्त्री के मुख्यमंत्री पद से इस्तीफा देने के बाद बिहार में राष्ट्रपति शासन लगा दिया गया। यह तब हटा, जब बिहार में लोकसभा चुनाव के साथ विधानसभा चुनाव का एलान हुआ और इंदिरा गांधी के नेतृत्व वाली कांग्रेस (आर) को दोनों ही ओर जबरदस्त जीत मिली। बताया जाता है कि बिहार में आम लोग बहु-दलीय सिस्टम और इसकी अस्थिरता से तंग आ गए थे। बार-बार बदलती सत्तासीन पार्टियां और मुख्यमंत्रियों को देखते हुए बिहार ने इस बार निर्णायक स्तर पर वोटिंग की। 1972 में बिहार में 318 सीटों वाली विधानसभा में कांग्रेस ने 261 सीटों पर चुनाव लड़ा। पार्टी को 167 सीटों पर जीत मिली। यानी कांग्रेस अपने दम पर ही पूर्ण बहुमत हासिल करने में सफल हो गई। यानी यह तय हो गया कि अगले पांच साल बिहार को स्थिर सरकार मिलेगी। 1969 में हुए मध्यावधि चुनाव में जहां कांग्रेस को 30.12 फीसदी वोट के साथ 118 सीटें मिली थीं, तो वहीं 1972 में उसे 34.12 प्रतिशत वोट मिले थे। दूसरी तरफ इस चुनाव में क्षेत्रीय दलों को भारी झटका लगा। जिन 20 क्षेत्रीय पार्टियों ने अपने उम्मीदवारों को जोर-शोर से उतारा था, उनमें से नौ का तो सूपड़ा साफ हो गया। हालांकि, निर्दलियों ने अपना किला बचाए रखा और 12 सीटों पर कब्जा जमा लिया।